यह समय कुछ औऱ है...

कैसे बीते ये कुछ दिन, मजबुरी का दौर है,
वो समय कुछ और था, ये समय कुछ और है ।


गलती की कुछ मुर्खों ने, भोग रहा संसार है,
कैद करके निर्दोषों को, घुम रहा वो दुष्ट चोर है,


कैसे बीते ये कुछ दिन, मजबुरी का दौर है,
वो समय कुछ और था, ये समय कुछ और है ।


देखो कैसे तड़प रहे है, मौत के इस षडयंत्र में,
कांधा भी न मिला जिसकी, टूटी सांसों की डोर है,


कैसे बीते ये कुछ दिन, मजबुरी का दौर है,
वो समय कुछ और था, ये समय कुछ और है ।



रहे सलामत रिश्ते अपने,क्यो रिश्तों में हुई दूरी है,एक बैठा है इस किनारें,तो दूजा दूसरी ओर है,


कैसे बीते ये कुछ दिन, मजबुरी का दौर है,
वो समय कुछ और था, ये समय कुछ और है ।



देवदूत बने डॉक्टर्स, नर्स तो, पुलिस रक्षाकवच बनी,
लगाकर बाज़ी जान की, कर रहे सेवा घोर है,
कैसे बीते ये कुछ दिन, मजबुरी का दौर है,
वो समय कुछ और था, ये समय कुछ और है ।



मिले विषाणु कुछ नये अभी जो,जहरीले ज्यादा कोरोना से,
घात करे चुपचाप दोनों, करे ना कोई शोर है,
कैसे बीते ये कुछ दिन, मजबुरी का दौर है,
वो समय कुछ और था, ये समय कुछ और है ।



धर्म चाहे कोई भी हो, पैग़ाम अमन का देता है,
तो क्यों इसकी आड़ में, ये करते इतना शोर है,
कैसे बीते ये कुछ दिन, मजबुरी का दौर है,
वो समय कुछ और था, ये समय कुछ और है ।



*दिलीप जोशी की कलम से...✍*